Madhu varma

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लेखनी कहानी - जॅंगल की चुरैल - डरावनी कहानियाँ

जॅंगल की चुरैल - डरावनी कहानियाँ

 यह घटना हमारे गाँव के एक बुजुर्ग पंडीजी बताते थे और पंडीजी जब यह आपबीती सुनाते थे तो सुनने वालों के रोंगटे खड़े हो जाते थे। ऐसा लगता था कि यह घटना वास्तविक है और अभी आँखों के सामने ही घट रही है।  

 वे बुजुर्ग पंडीजी जब इस घटना का वर्णन करते थे तो उनके चेहरे पर अजीब से भाव आते-जाते थे जिससे सुनने वाले को एक अजीब रोमांच की अनुभूति होती थी। पंडीजी एक ही साँस में यह पूरी घटना सुना जाते थे।  

 तो आइए देर किस बात की, हम लोग भी सुन लेते हैं इस घटना को। थोड़ा-सा इंतजार और कर लेते हैं। सीधे कहानी पर पहुँचने से अच्छा है कि कथानक को मजबूती प्रदान करने के लिए थोड़ी पृष्ठभूमि पर भी नजर डाल लेते हैं।  

 बात एही कोई साठ-पैंसठ साल पहले की होगी और तब यह आपबीती सुनाने वाले पंडीजी 20-22 साल के रहे होंगे। उस समय हमारे गाँव के लोग बाजार करने के लिए पथरदेवा या तरकुलवा जाते थे।  

 वैसे आजकल कंचनपुर ही क्यों हर छोटे-बड़े चौराहों पर बाजार लगनी शुरु हो गई है। हमारे गाँव के लोगों को पथरदेवा सीधा पड़ता (लगता) है जबकि तरकुलवा थोड़ा सा उल्टा। आज-कल तरकुलवा में शनि और मंगल को बहुत ही बड़ा बाजार लगता है।  

 दूर-दूर के व्यापारी यहाँ आते हैं और अनाज आदि की खरीददारी करते हैं। तो शनि और मंगल को हमारे गाँव के किसान लोग तरकुलवा का रूख करते हैं पर दैनिक उपयोग में आने वाली वस्तुओं की खरीददारी यानी नून-तेल, मिर्च-मसाला आदि के लिए हमारे गाँव के लोग पथरदेवा ही जाते हैं।  

 हाँ एक अंतर जरूर आ गया है, आज बाजार करने लोग खुरहरिया रास्ते, पगडंडियों आदि से पैदल नहीं जाते बल्कि पक्की सड़क से होकर जाते हैं और वह भी वाहन आदि पर सवार होकर जबकि पिछले समय में लोग पैदल और वह भी खुरहुरिया रास्ते से तिरछे बाजार करने जाते थे ताकि जल्दी से पहुँच जाएँ। ये खुरहुरिया रास्ते लोगों के आने-जाने से अपने आप बन जाते थे।  

 उस समय ये खुरहुरिया रास्ते या पगडंडियाँ बहुत ही सुनसान हुआ करती थीं और मूँज आदि छोटे-मोटे पौधों से कभी-कभी ढक जाती थीं। दोपहर और दिन डूबने के बाद तो इन खुरहुरिया रास्तों और पगडंडियों पर कभी-कभी ही कोई इक्के-दुक्के आदमी दिखाई दे जाते थे। इन खुरहुरिया रास्तों और पगडंडियों के अगल-बगल में कहीं-कहीं दूर तक फैले हुए खेत होते थे तो कहीं-कहीं भयावह, बियावान छोटे-मोटे जंगल या पुरखे-पुरनियों द्वारा लगाए हुए बाग-बगीचे।  

 उस समय हमारे गाँव के लोग पथरदेवा इसी प्रकार की एक पगडंडी से होकर जाते थे। जो एक नहर को पार करते हुए सुनसान बाग-बगीचों, मूँजहानी आदि से होकर गुजरती थी। (हमारे गाँव से पथरदेवा की दूरी लगभग एक कोस है पर आज यह दूरी बहुत ही कम प्रतीत होती है क्योंकि सड़कों के निर्माण के साथ-साथ बीच-बीच में बहुत सारे भवनों का निर्माण भी हो गया है जिसके कारण हमारे गाँव से पथरदेवा के बीच छोटी-मोटी दुकानों से लदे कई स्थान बस गए हैं।  

 आज-कल जंगलों, बाग-बगीचों आदि को काटकर समतल खेत या पक्के घर बना दिए गए हैं। यानि सब मिला-जुलाकर कहूँ तो पथरदेवा हमारे गाँव से ही समझिए दिख रहा है।) तो आइए अब मझियावाले बाबा की जयकार करते हुए हलुमानजी (हनुमानजी) की दुहाई देते हुए सीधे कहानी की ओर रूख करते हैं। पंडीजी की उस रोमांचक भूतही कहानी को अब और भूतही न बनाते हुए सुना ही देता हूँ। एक बार की बात है कि हमारे गाँव के वे पंडीजी पथरदेवा, बाजार करने गए। दिन ढल चुका था और शाम हो गई थी।  

 पथरदेवा में उनका ममहर भी था। बाजार में उनके मामा मिल गए और उन्हें घर चलने के लिए आग्रह करने लगे। पंडीजी ने कहा कि फिर कभी आऊंगा तो घर पर चलूँगा। अभी मुझे कुछ जरूरी सामान लेकर घर पर जाना है, क्योंकि मैं अकसेरुआ (अकेला) आदमी हूँ और घर के साथ गाय-गोरू की भी देख-भाल करनी है। पर पंडीजी के मामा माने नहीं और उन्हें अपने घर पर लेकर चले गए। पंडीजी जल्दी-जल्दी में मामी का दिया हुआ भुजा-भरी खाए, रस पीए और फिर आने का वादा करके वहाँ से चलने को हुए। उनके मामा ने कहा कि रात हो चुकी है कहो तो मैं चलकर छोड़ देता हूँ या रूक जाओ कल चले जाना। पर पंडीजी को तो अपनी गाय दिखाई दे रही थी जो दोनों जून लगती थी और एकवड़ (यानि एक आदमी के अलावा वह दूसरे को दूहने नहीं देती थी) हो गई थी।  

 पंडीजी अपनी निडरता का परिचय देते हुए मामा से बोले कि मैं अकेले चला जाऊँगा, आप कष्ट न करें इतना कहकर पंडी मामा के घर से निकल कर अपने गाँव की ओर चल दिए। अब लगभग रात के ८-९ बज चुके थे। जिस पगडंडी से होकर हमारे गाँव के लोग पथरदेवा आते-जाते थे वह पगडंडी एक बहुत ही घनी और भयावह बगीचे से होकर गुजरती थी। इस बगीचे में आम, महुआ, जामुन इत्यादि पेड़ों की बहुलता थी पर बीच-बीच में कहीं-कहीं बरगद जैसे बड़े पेड़ भी शोभायमान थे। इस बगीचे को मझियावाली बारी के नाम से जाना जाता था यह बारी (बगीचा) सिधावें नामक गाँव के पास थी। आज भी इसका नाम वही है पर इसका अस्तित्व खतम होने की कगार पर है।  

 लगभग सारे पेड़ काटे जा चुके हैं। (आज हम भले कहते फिरते हैं कि एक पेड़ सौ पुत्र समाना, पर मन का भाव रहता है, सौ काटो पर एक भी न लगाना।- शायद हमें पता नहीं की इन पेड़-पौधों की हत्याकर हम अपने वजूद को ही मिटाने पर लगे हुए हैं।) जब हमारे गाँव के पंडीजी इस बगीचे में पहुँचे तो उनकी हिम्मत जवाब देने लगी, उनकी साँसे तेज और शरीर पसीने से तर-बतर। कारण यह था कि पगडंडी पर आगे भूत-प्रेतों का जमावड़ा था और वे चिक्का, कबड्डी आदि खेल खेलने में लगे हुए थे।  

 उन भूत-प्रेतों के भयावह रूप, उनकी चीख-पुकार, मारपीट किसी भी हिम्मती और हनुमान-भक्त को भी मूर्छित करने के लिए पर्याप्त थी। पंडीजी की सुने तो लगभग 100 से ऊपर भूत-भूतनी थे और ऐसा लग रहा था कि मेला लगा हुआ हो। भूत-प्रेतों की डरावनी आवाज सुनकर ऐसा लगता था कि कलेजा मुँह को आ जाएगा। पूरा शरीर काँपने लगा था। मुँह से आवाज भी नहीं निकल पा रही थी कि हनुमान चालीसा ही पढ़ा जाए।  

 पर ये भूत-प्रेत पंडीजी से अनजान होकर खेल खेलने में ही लगे हुए थे। खैर पंडीजी भी बहुत ही हिम्मती थे और रात-रात को खेतों आदि में रहकर पटौनी (सिंचाई) आदि करने के साथ ही आवश्यकता पड़ने पर ये खेतों में बँसखटिया डालकर सो भी रहते थे। पंडीजी थोड़ी और हिम्मत किए और एक पेड़ की आड़ में खड़े होकर तेज साँसों से मन ही मन हनुमानजी को गोहराने लगे। उनकी साँस तो बहुत ही फूल रही थी पर करें तो क्या करें। वे अपने साँसू पर काबू करने के साथ ही यह सोंच रहे थे कि कब ये भूत रास्ते से हटें और मैं लंक लगाकर भागूँ।  

 तभी उन्हें कुछ याद आया और वे मन ही मन हँसे। उनके दिमाग में कौंधा कि अरे यह तो मझिया वाले बाबा का क्षेत्र है। फिर मैं क्यों डर रहा हूँ, अभी वे मन ही मन यही सोच रहे थे कि तभी अचानक उनके कानों में खड़ाऊँ की चट-चट की आवाज सुनाई देने लगी।खड़ाऊँ की आती इस आवाज से उनका डर थोड़ा कम हुआ और कुछ हिम्मत बँधी। धीरे-धीरे वह आवाज और तेज होने लगी और देखते ही देखते उनके पास एक स्वर्ण-शरीर का लंबा-चौड़ा व्यक्ति जो केवल एक सफेद धोती पहने हुए था और उसके कंधे से सफेद गमझा झूल रहा था, प्रकट हुआ।  

 उसके ललाट का तेज उस अँधियारी रात में भी स्पष्ट दिख रहा था। उस अलौकिक आत्मा के दर्शन मात्र से पंडीजी पूरी तरह से बेखौफ और आनंदित हो गए और बार-बार उस स्वर्णिम विराट पुरूष के मुख-मंडल की ओर नजर ले जा रहे थे पर उस विराट पुरुष के मुख-मंडल पर इतना तेज था कि पंडीजी की आँखें टिक नहीं पा रही थीं और चौंधिया रही थीं।  

 पंडीजी के अनुसार उस महापुरुष के पूरे शरीर से ही आभा निकल रही थी। पंडीजी अभी कुछ कहते उससे पहले ही उस अलौकिक पुरुष ने पंडीजी से पूछा, आपको डर लग रहा है क्या? पंडीजी ने स्वाकारोक्ति में केवल अपनी मुंडी हिला दी। फिर उस अलौकिक पुरुष ने कहा, डरने की कोई बात नहीं। आप तो निडर जान पड़ते हैं। खैर आप आगे-आगे चलिए और मैं आपके पीछे-पीछे आपके गाँव तक आता हूँ।  

 उस अलौकिक पुरुष की इतनी बात सुनते ही पंडीजी तेज कदमों से पगडंडी पर चलने लगे और उनके पीछे-पीछे वही खड़ाऊँ की चट-चट की तेज आवाज। दूर-दूर तक भूत-प्रेतों का नामोनिशान नहीं और अब पंडीजी भी निडर मन से अपने मार्ग पर अग्रसर थे। पंडीजी ने बताया कि खड़ाऊँ की तेज आवाज आते ही सभी भूत-प्रेत रफूचक्कर हो गए थे। जब पंडीजी गाँव के पास पहुँच गए और गाँव के पास की नहर को पार कर लिए तो घूमकर उस अलौकिक आत्मा से तेज आवाज में बोले कि बाबा, अब मैं चला जाऊँगा। आप अपने निवास पर वापस लौट जाएँ। मेरे कारण जो आपको कष्ट हुआ उसके लिए क्षमा चाहता हूँ।उस समय वह आत्मा उनसे कुछ 20-25 मीटर की दूरी पर नहर के इस पार ही थी। इसके बाद पंडी जी उस महा मानव को प्रणाम किए और घर की ओर तेज कदमों से चल पड़ें। उनको कुछ दूरी तक तो खड़ाऊँ की आवाज सुनाई दी फिर कुछ देर बाद वह खड़ाऊँ की चट-चट आवाज अंधियारी रात के निरव में कहीं खो गई। पंडीजी उस अलौकिक आत्मा का मन ही मन गुणगान करते हुए घर पहुँचे। वे बहुत ही प्रफुल्लित लग रहे थे। सुबह-सुबह यह बात पूरे गाँव में फैल गई। उनके घर और गाँव-गड़ा के लोगों को पूरा विश्वास था कि यह मझिया वाले बाबा ही थे, क्योंकि मझियावाले बाबा का सम्मान सब लोग करते थे। यहाँ तक कि भूत-प्रेत भी। तभी तो उस रास्ते से कोई भी आसानी से कभी भी आ-जा सकता था और भूत-प्रेत भी मझिया वाले बाबा के डर से किसी का नुकसान नहीं पहुँचाते थे, हाँ यह अलग बात थी कि इन भूत-प्रेतों से लोग खुद ही डर जाते थे। धन्य है भारतीय संस्कृति जिसे हर वस्तु में देवत्व नजर आता है। हर बगीचे आदि का एक अधिकारी देव होता है। तो मझियावाली बारी के देवता थे, मझियावाले बाबा।

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